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सत्संग से मिलती है सत्कर्म की प्रेरणा:- लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी


 


दुबहर ।  धार्मिक अनुष्ठान का कभी व्यवसायीकरण नहीं करना चाहिए। लेकिन आज लोग धार्मिक अनुष्ठान कार्यों के लिए भी पैसे की मांग करते हैं यह कहीं से उचित नहीं है यह भक्ति की श्रेणी में नहीं आता भक्ति तभी पूर्ण मानी जाती है जब उसके साथ ज्ञान और वैराग्य सम्मिलित हो तभी भक्ति पूर्ण होती है वेद ,उपनिषद को पढ़ने से ज्ञान और वैराग्य की उत्पत्ति होती है। कहा कि साधना एकांत में होती है व सत्संग समुदाय के बीच होता है। सत्संग करने से हमें सत्कर्म की प्रेरणा मिलती है। 

उक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने  महर्षि भृगु की पावन भूमि पर पतित पावनी मां गंगा के तट के किनारे  जनेश्वर मिश्र सेतु एप्रोच मार्ग के निकट हो रहे चातुर्मास व्रत यज्ञ में अपने प्रवचन के दौरान  शुक्रवार की देर शाम कही। उन्होंने राजा परीक्षित के प्रसंग पर चर्चा करते हुए कहा कि राजा परीक्षित को श्राप लगा कि सात दिनों में ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। सुकदेव जी महाराज से राजा परीक्षित ने पूछा कि जिस मनुष्य की मृत्यु निकट हो उसका क्या धर्म है।  सुकदेव जी महाराज ने जिस भागवत महापुराण को अपने पिता से पढ़ा था उसी को राजा परीक्षित को सुना दिए।   इस तरह से भागवत की परंपरा चली आ रही है। कहां की भागवत महापुराण की कथा केवल 7 दिन में ही सुनने का महत्व नहीं है इसको 24 घंटे में और 24 दिन में भी सुना जा सकता है इस कथा को समय सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। इस कथा को नारद जी महाराज ने अपने भाई सनक ,सनंदन, सनातन, सनत कुमार चारों भाइयों से हरिद्वार के आनंदवन में गंगा तट के किनारे श्रवण किया।  इसी कथा को गोकर्ण जी महाराज ने अपने प्रेतात्मा भाई धुंधकारी को सुनाकर उनका उद्धार किए।  उन्होंने बतलाया कि श्रीमद् भागवत महापुराण की परंपरा नैमिषारण्य से प्रारंभ होती है।  नैमिषारण्य में व्यास जी महाराज के शिष्य श्री सुत जी महाराज ने अठ्ठासी हजार संतो सहित सौनक  ऋषि जी   महाराज की अगुवाई में पावन कथा का आयोजन किए।  जिसमें एक हजार वर्षों तक अनुष्ठान करने का संकल्प लिया गया था। 

उन्होंने कहा कि काल से कोई बच नहीं सकता है।  काल पर किसी का बस नहीं चलता है।  कहा कि विषम परिस्थितियों में ईश्वर की भक्ति नहीं छोड़नी चाहिए।  बतलाया कि ईश्वर को पाने का सबसे सरल उपाय उनका भक्ति मार्ग है।

रिपोर्ट:-नितेश पाठक

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