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चिंता चिता के समान व चिंतन अमृत के समान होता है:- जीयर स्वामी जी


 



दुबहर:- किसी समस्या के बारे में चिन्ता नहीं, बल्कि उसके सामाधान के लिये चिंतन करना चाहिए। चिंता चिता के समान और चिंतन अमृत के समान होता है। चिंता का सर्वदा त्याग करना चाहिये। 

उक्त बातें भारत के महान मनीषी संत त्रिदंडी स्वामी जी महाराज जी के कृपा पात्र शिष्य लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज में जनेश्वर मिश्रा सेतु एप्रोच मार्ग के निकट हो रहे चातुर्मास व्रत में प्रवचन के दौरान कही।

स्वामी जी ने श्रीमद् भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कन्ध की कथा प्रारम्भ करते हुए कहा कि विश्वामित्र जी को बक्सर में किये जाने वाले यज्ञ में राक्षसों के संभावित उपद्रव से चिंता हो रही थी। तभी नारद जी आकर उन्हें परामर्श दिये कि चिंता नहीं चिंतन कीजिये। दशरथ नंदन राम-लक्ष्मण को बुलाकर अपना यज्ञ पूर्ण कीजिये। ऐसा ही हुआ। विश्वामित्र जी राजा दशरथ के दोनों पुत्रों को मांग लाये और अपना यज्ञ पुरा किये। उन्होंने कहा कि कलियुग में यज्ञ का विरोध करने वाले विध्वंसकारी तत्त्व (राक्षस) नहीं हैं। पहले राक्षसी प्रवृति के लोग यज्ञ का विध्वंस कर देते थे। किसी अच्छे कार्य में मामूली अवरोध और विरोध की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। हर अच्छे कार्य के प्रारम्भ में बाधायें आती हैं लेकिन सतत प्रयास से सारी बाधायें समाप्त हो जाती हैं और स्थितियां अनुकूल हो जाती।


श्री जीयर स्वामी जी ने माता अनुसुईया की चर्चा करते हुए कहा कि वह महर्षि अत्रि की पत्नी थीं। अपने पतिव्रता-धर्म के कारण सुविख्यात थीं। एक दिन नारद जी बारी-बारी से विष्णु जी, शिवजी एवं ब्रह्मा जी की अनुपस्थिति में उनके लोकों में पहुंचे। उन्होंने अनुसुईया के पतिव्रता-धर्म की प्रशंसा करते हुए कहा कि समस्त सृष्टि में उनसे बढ़कर कोई पतिव्रता नहीं है। नारद जी बातें सुनकर तीनों देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती ईर्ष्या करने लगीं । उन्होंने अपने अपने पतियों से अनुसुईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराने के लिए सोचने लगीं। उन्होंने अपने पतियों से हठकर इसके लिए राजी कर लीं। तीनों देव अवधूत बटुक ब्रह्मचारी बन अनुसुईया के आश्रम पर पहुंचे। उस समय वह आश्रम पर अकेली थी। तीन अतिथियों को द्वार पर देख. भोजन का आग्रह किया। तीनों ने कहा कि अगर आप निर्वस्त्र होकर भोजन कराएंगी तो भोजन करेंगे अन्यथा नहीं। अनुसुईया ने साधुओं के शाप और अतिथि सेवा से वंचित होने के भय से परमात्मा से प्रार्थना की । हाथ में जल लेकर तीनों पर छिड़क दी। तीनों देव छः-छः माह के बच्चे बन गये, जिन्हें निर्वस्त्र होकर दूध पिलाया और पालने में लिटा दीं। देवों के समय से वापस नहीं लौटने पर तीनों देवियाँ खोज में निकल गयीं। पुनः नारद जी ने सारी बातें बताई । वे आश्रम पर जाकर माता अनुसुईया से क्षमा मांगीं और अपने पतियों को प्राप्त की। अनुसुईया ने तीनों देवों को अपने पुत्र रूप में मांगा । कालान्तर में विष्णु अंश दतात्रेय, ब्रह्मा अंश चन्द्रमा और शिव अंश दुर्वासा अनुसुईया के पुत्र रूप में अवतरित हुए।

रिपोर्ट:- नितेश पाठक

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