Breaking News

Akhand Bharat welcomes you

रोचक रहस्य: 446 साल पुरानी श्रीरामचरित मानस की पांडुलिपियां आज भी इस गांव में हैं सुरक्षित




लखनऊ: आज श्रीरामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदासजी की जयंती है। उनका जन्म संवत् 1554 में सावन माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि पर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर गांव में हुआ था। अभी सन् 2020 और संवत् 2077 चल रहा है।
तुलसीदासजी के जन्म सन् को लेकर कई तरह के मतभेद हैं। कुछ विद्वानों मानते हैं कि उनका जन्म सन् 1511 में हुआ था। राजापुर में ही श्रीरामचरित मानस मंदिर है, जहां तुलसीदासजी ने इस ग्रंथ की रचना की थी। संवत्‌ 1680 में 126 वर्ष की आयु में तुलसीदासजी ने शरीर परित्याग किया।
तुलसीदासजी के संबंध में श्रीरामचरित मानस मंदिर के प्रमुख 77 वर्षीय पं. रामाश्रय त्रिपाठी से बताते हैं कि वे तुलसीदास की शिष्य परंपरा की 11वीं पीढ़ी के प्रमुख हैं। तुलसीदासजी के पहले प्रमुख शिष्य गणपतराम उपाध्याय थे। उनके परिवार के लोग ही इस मंदिर के प्रमुख होते हैं।
यहां के आठवें प्रमुख मुन्नीलाल की कोई संतान नहीं थी। तब उन्होंने अपनी बहन के बेटे ब्रह्मदत्त त्रिपाठी को गोद लिया और उन्हें इस मंदिर का प्रमुख नियुक्त किया। ब्रह्मदत्त त्रिपाठी के पुत्र रामाश्रय त्रिपाठी पिता की मृत्यु के बाद 15-16 वर्ष की उम्र से ही इस मंदिर की देखभाल कर रहे हैं। इनके पास श्रीरामचरित मानस के अयोध्याकांड की पांडुलिपियां आज भी यहां सुरक्षित रखी हैं।
तुलसीदास जयंती पर नहीं होगा बड़ा आयोजन
इस साल कोरोना महामारी की वजह से तुलसीदास जयंती पर कोई बड़ा आयोजन नहीं हो पाएगा। हर साल तुलसी जयंती पर भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है, जिसमें देश-दुनिया के हजारों भक्त शामिल होते हैं। इस बार अखंड श्रीरामचरितमानस का पाठ हो रहा है। इसके अलावा सीमित लोगों की उपस्थिति में ये पर्व मनाया जाएगा। मंदिर में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, हनुमानजी के साथ ही तुलसीदासजी की भी प्रतिमा है।
ये पांडुलिपियां 11.5 इंच x 5.5 इंच के आकार की हैं। अयोध्याकांड के 170 पेज हैं। हर एक पन्ने पर 7 लाइन लिखी हैं।
446 साल पुरानी हैं पांडुलिपियां
पं. त्रिपाठी तुलसीदासजी को बाबा कहते हैं। बाबा का जन्म संवत् 1554 में हुआ था। उन्होंने संवत् 1631 में 76 वर्ष की आयु में श्रीरामचरित मानस की रचना शुरू की थी। जिसे पूरा करने में 2 साल 7 माह और 26 दिन का समय लगा था। संवत् 1633 के अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी पर ये ग्रंथ पूरा हो गया। इस ग्रंथ के अयोध्याकांड की पांडुलिपियां आज भी मंदिर में सुरक्षित हैं।
अभी संवत् 2077 चल रहा है, इस हिसाब से ये पांडुलिपियां 446 साल पुरानी हैं। अयोध्या कांड की शुरुआत में श्री गणेशाय नम: और जानकी वल्लभो विजयते लिखा हुआ है। तब के हिन्दी अक्षरों में और आज के अक्षरों में काफी अंतर हैं। करीब 15 अक्षर ऐसे हैं, जो आज बिल्कुल अलग तरीके से लिखे जा रहे हैं।
तुलसीदासजी के समय के और आज के समय के कुछ अक्षरों में काफी परिवर्तन आ गया है।
कागज पर लिखी थी श्रीरामचरित मानस
कई लोगों को लगता है कि तुलसीदासजी के समय कागज नहीं थे, उन्होंने भोजपत्र पर या ताड़पत्र पर श्रीरामचरित मानस लिखी थी। लेकिन, ये गलत है। उस काल में कागज का आविष्कार हो गया था। तुलसीदासजी ने लकड़ी की कलम से लिखा था और स्याही भी खुद बनाई थी। उन्होंने घमीरा और आंवले का रस, बबूल का गोंद और सूखा काजल मिलाकर स्याही बनाई थी।
इस ग्रंथ की शेष पांडुलिपियां नदी डूबने से हो गईं खराब
इस मंदिर में पूजा-पाठ करने के लिए एक पुजारी नियुक्त किए जाते रहे हैं। पुराने समय में एक पुजारी धन कमाने के लालच में मौका मिलते ही श्रीरामचरित मानस की पांडुलिपियां लेकर भाग रहा था। तब मंदिर के लोगों ने उसका पीछा किया। वह गंगा नदी के काला-कांकर घाट पर नाव में बैठकर नदी पार कर रहा था, तब उसे आवाज लगाई गई तो वह डर गया और उसने पांडुलिपियां नदी में फेंक दीं।
इसके बाद उस समय काला-कांकर के राजा हनुमंतसिंह ने नदी में से पांडुलिपियां निकलवाईं। भीगने की वजह से सभी खराब हो गईं, लेकिन अयोध्याकांड पूरा सुरक्षित बच गया। इसके बाद काशी के महाराजा ने पांडुलिपियों के चारों ओर नए कागज की गोट लगवा दी।
बादशाह अकबर का दिया ताम्रपत्र आज भी पं. रामाश्रय त्रिपाठी के पास रखा हुआ है।
बादशाह अकबर ने दी थी 96 बीघा जमीन
एक बार बादशाह अकबर तुलसीदास के राजापुर गांव यमुना नदी के रास्ते नाव से आया था। तब वह तुलसीदास से मिलकर बहुत प्रभावित हुआ। ये सन् 1585 की बात है। उस समय अकबर ने तुलसीदास के मना करने पर भी करीब यमुना नदी का घाट और 96 बीघा जमीन दी थी। अकबर के इस आदेश का ताम्रपत्र आज भी पं. रामाश्रय के पास है।
तुलसीदास के मना करने पर शिष्य गणपतराम को जमीन का अधिकार दिया गया था। अंग्रेजों के शासनकाल में ये जमीन हड़प ली गई थी। बदले में 684 रुपए हर साल दिए जाने लगे। 2 सितंबर 1846 को अंग्रेजों ने ये पैसा बढ़ाने की बात कही थी, लेकिन कुछ हुआ नहीं। इसके बाद ये पैसे 1972 तक बांदा जिला कार्यालय से मिलते थे।
इसके बाद ये जमीन सार्वजनिक अधिकार में चली और ये पैसे भी मिलना बंद हो गए। इसके बाद यहां आने वाले भक्तों द्वारा दिए जाने वाले दान से मंदिर का कामकाज चल रहा है।
समय-समय पांडुलिपियों को किया गया है संरक्षित
1948 में पुरातत्व विभाग ने इसे विशेष केमिकल से संरक्षित किया। 1980 में कानपुर वाले भक्तों ने पांडुलिपियों का लेमिनेशन करवाया था। 2004 में भारत सरकार ये पांडुलिपियां को संरक्षित करने के लिए जापानी केमिकल लगाया गया था।
तुलसीदासजी के प्रमुख शिष्य गणपतराम के परिवार के लोग ही मंदिर के प्रमुख नियुक्त होते हैं।
देश-दुनिया से हर साल पहुंचते हैं हजारों लोग
फरवरी 1980 में जनार्दन दत्त शुक्ला उत्तरप्रदेश के राज्यपाल के सलाहकार थे। उनकी सलाह पर पं. रामाश्रय ने मंदिर में विजिटर्स के लिए रजिस्टर रखा, जिसमें यहां आने वाले लोगों से मंदिर के संबंध में उनके अनुभव लिखवाए जाते हैं। यहां पूरे देश से लोग आते हैं। साथ ही, अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस आदि देशों से भी तुलसीदास को जानने विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं। सभी की डिटेल्स विजिटर्स के रजिस्टर में लिखी हुई है।




डेस्क



No comments