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सावन माह पर विशेष : ... और अब यादों में सिमट कर रह गए सावन के झूले व कजरी गीत





रतसर (बलिया) सावन का महीना वर्ष के बारह महीनों में सबसे अधिक त्योहारों वाला महत्वपूर्ण महीना है। लेकिन युवा पीढ़ी इंटरनेट मीडिया की गिरफ्त में आने के कारण अपने पुरातन सभ्याचारक को भुलती जा रही है।अति महत्वपूर्ण त्योहारों एवं पौराणिक परंपराओं से आच्छादित है यह सावन का महीना। जिसका अतीत दर्शाता है कि हम अपने पुरातन परंपराओं को छोड़कर आधुनिक परंपराओं की चकाचौंध में इस कदर खो गए हैं कि हमें अपनी संस्कृति की याद तक नहीं आती है, इसलिए हमारे सनातन धर्म के लगभग सभी त्योहार धीरे- धीरे विलुप्त होते जा रहे है। पहले सावन महीने का तीज त्योहार मनाने के लिए नव विवाहिताएं बेसब्री से इंतजार करती थीं। हमारे त्योहारों में सावन की कजरी जो अपनी एक अलग महत्व रखती है के बारे में यदि विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि सावन का झूला व कजरी का गीत जो अब शहरों को छोड़कर कहीं कहीं देहातों व कस्बों में ही यदा कदा आज यह परंपराएं जीवित है किन्तु अब ये विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रहे हैं जबकि सावन का झूला या कजरी गीत इतना महत्वपूर्ण है कि महिलाएं व कन्याएं आज के लगभग तीन दशक पहले अहले सुबह से बागों आदि में सावन का झूला डालकर अपने सखी सहेलियों के साथ में दिन से लेकर देर रात तक झूला झूलती रहती थी साथ ही कजरी गीत जैसे "पिया मेंहदी मंगाय द मोतीझील से जायके साइकिल से ना " झूला झूले कदम के डरिया ... का गीत जोर शोर से गाया जाता था। आर्किटेक्ट इं० गणेशी पाण्डेय बताते है कि एक दौर था जब सावन के शुरू होते ही बारिश की फुहारों संग पेड़ों पर झूले व कजरी का मिठास पूरे वातावरण में घुल जाया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। सावन बीतने को है,लेकिन न कहीं झूला और न ही कजरी के बोल ही सुनाई पड़ रहे हैैं। परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं। 90 वर्षीय जनऊपुर निवासिनी गिरिजा देवी भोजपूरी में बात करते हुए बताया कि सावन के आवते हर घर में झूला डाल के नयी नवेली कनिया संगे गांव के बिटिया सब झूला झूलत कजरी के गीत गावत रहली,जवन बड़ा निक लागत रहे। इहे ना बल्कि खेत में रोपाई करत बनिहारिन भी कजरी गीत गा के रोपनी करत बड़ा सुहावन लागे लेकिन इ सब बीतल जमाना के बात हो गईल। अब ना झूला गांव में लागत और ना ही कजरी केहू गावता।

अपने संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए अपने भविष्य के नौनिहालों में पुराने परंपराओं का समावेश कराने के साथ ही अपनी पुरातन गानों व त्योहारों को विलुप्त न होने दे।



रिपोर्ट : धनेश पाण्डेय

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