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शहीद मंगल पांडेय की सही व वास्तविक जयंती 30 जनवरी को गूगल पर दिए गए उनकी जयंती 19 जुलाई भ्रामक, तथ्यहीन तथा प्रमाण से परे






दुबहड़। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के क्रांतिदूत शहीद मंगल पांडेय का जन्म बलिया जनपद के नगवा गांव में *30 जनवरी सन 1831* को हुआ था। उनके पिता का नाम सुदिष्ट पांडेय एवं माता का नाम जानकी देवी था। उस समय भारतवासी अंग्रेजों के आतंक और क्रूरता से त्रस्त थे। देशभक्ति की भावना से प्रेरणा लेकर देश सेवा का जज्बा लिए वह सेना में भर्ती हो गए। वह बंगाल के बैरकपुर में 19 नंबर रेजिमेंट के पांचवी कंपनी के 1446 नंबर के सिपाही पद पर कार्यरत थे। वह अति भावुक कर्तव्यनिष्ठ एवं धर्मपरायण ब्राह्मण सिपाही थे। सेना में उनका कार्य सुंदर एवं सराहनीय था। लेकिन सेना में अंग्रेजों के अधीन रहते हुए उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेज सेनाधिकारी भारतीय सिपाहियों के देश प्रेम और स्वाभिमान को कुचल रहे हैं। वह मन ही मन अंग्रेजी सेना के प्रति अपने हृदय को जलाते रहते थे। इस बीच किसी ने कह दिया कि अब आप लोगों को गाय और सूअर की चर्बी से बनी कारतूस को मुंह से खोलना पड़ेगा। फिर यह बात सेना के भारतीय सिपाहियों के बीच आग की तरह फैल गई  सिपाहियों के मन में यह आशंका प्रबल हो गई कि अंग्रेज "फूट डालो और राज करो" की नीति पर चल रहे हैं। अंग्रेज हिंदुओं और मुसलमानों के धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। फिर क्या था- मंगल पांडेय का ब्राह्मणत्व जाग उठा। उन्होंने अन्य भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेज अफसरों को संदेश दिया कि हम भारतीय गाय और सुअर से बनी चर्बी का प्रयोग कदापि नहीं करेंगे  फिर तो जान बूझकर अंग्रेज अफसर गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस का ही प्रयोग करने के लिए 19 वीं रेजिमेंट के सिपाहियों को दिया। लेकिन सिपाहियों ने इस कारतूस का प्रयोग करने से मना कर दिया। फलस्वरूप अंग्रेज अधिकारियों ने दमन चक्र चलाकर सभी के अस्त्र-शस्त्र छीन लिए। हमारे इतिहास की अमर तारीख 29 मार्च के दिन बैरकपुर के सिपाहियों को खबर मिली कि उन पर दमन चक्र चलाकर गिरफ्तार किया जाएगा। यह खबर सुनकर मंगल पांडेय चुप न बैठ सके। उन्होंने अकेले युद्ध का बिगुल बजाकर अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों को ललकारा। लेकिन अन्य भारतीय सैनिक मूर्तिवत खड़े रहे। मंगल पांडे खूंखार शेर की तरह बैरकपुर के परेड ग्राउंड में दहाड़ता रहा। इसी समय अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्युसण ने सिपाहियों को आदेश दिया कि पांडे को गिरफ्तार करो। यह सुनते ही मंगल पांडे का बलियाटी खून खौल उठा। उनकी बंदूक सार्जेंट मेजर ह्युसन पर गरजी और वह वहीं पर ढेर हो गया। उसी समय घोड़े पर सवार होकर तैश में लेफ्टिनेंट बाग आया। बाग पर भी मंगल पांडे की बंदूक गरजी। वह भी वहीं पर लुढ़क गया। पुनः एक गोरा अंग्रेज  अफसर आया। मंगल पांडे पर पिस्तौल निकाल गोली चलाया। पर निशाना चूक गया। मंगल पांडे ने तलवार निकाला। एक ही वार में उसका भी काम तमाम हो गया। इस बीच अंग्रेज अफसर कर्नल व्हीलर गोरे सैनिकों के साथ मंगल पांडे को गिरफ्तार करना चाहा। भारतीय सैनिकों द्वारा खुलकर बगावत नहीं होने और अपने गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने खुद को गोली मार ली। लेकिन मंगल पांडे की मौत नहीं हुई। घायलावस्था में उनका अस्पताल में इलाज हुआ। फिर वह स्वस्थ हो गए। फौजी अदालत में मुकदमा चला। अदालत के द्वारा उन्हें फांसी की सजा मुकर्रर हुई। 08 अप्रैल 1857 को फांसी का दिन निश्चित हुआ। बैरकपुर के जल्लादों ने किसी ब्राह्मण को फांसी देने से इंकार कर दिया। अंततः चुपके-चुपके कोलकाता से जल्लाद बुलाए गए। वे नहीं जानते थे कि उन्हें किसे और क्यों फांसी देनी है ? भारतीयों के आक्रोश और विरोध से बचने के लिए आज ही 08 अप्रैल, 1857 को सुबह 5:30 बजे ही उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय इतिहास में प्रथम क्रांति का प्रथम चिंगारी जलाने वाला युवा मंगल पांडे हंसते-हंसते मृत्यु को गले लगा लिया। मंगल पांडे शहीद हो गए। लेकिन उनकी बीरता, निडरता बहुत दिनों तक अंग्रेजों को सताती रही। मंगल पांडेय का बलिदान भारतीयों को जगा दिया। सामाजिक चिंतक एवं गीतकार बब्बन विद्यार्थी ने अपनी लेखनी में ठीक ही लिखा है कि- "सोए भारत को जगाय दियो रे, मंगल मरदनवा,----- । नि:संदेह शहीद मंगल पांडेय का बलिदान भारतीय इतिहास एवं जनमानस में प्रथम पंक्ति में सुरक्षित है।

रिपोर्ट:- नितेश पाठक

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