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जाने क्यों है पितृ पक्ष में कौओं का महत्व



 रसड़ा (बलिया ) पितृपक्ष की शुरुआत आश्विन मास के कृष्ण भाद्रपद प्रतीप्रदा एकम तिथि  से प्रारंभ हो जाता है।और कृष्ण पादपद अमावस्या तिथि समाप्त होगी।संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है।इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। पितरों का श्राद्ध करना हिन्दू मान्यताओं के अनुसार हिंदू धर्म के लिए बहुत जरूरी माना जाता है। यदि किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती और वह प्रेत के रूप में इस संसार में ही रह जाता है।शास्त्रों के अनुसार इस दिन शाम तक पितृ धरती पर रहते हैं। शाम होने पर पितृ अपने लोक लौट जाते हैं। इस दिन का जो लोग लाभ नहीं उठाते हैं उन्हें साल भर पितरों की नाराजगी के कारण मानसिक, आर्थिक एवं शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
इस दिन उन सभी मृतकों का श्राद्ध किया जाता है जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो या जिनकी मृत्यु की तिथि की जानकारी नहीं हो। इसदिन सभी पितर अपने परिजनों के घर के द्वार पर बैठे रहते हैं। जो व्यक्ति इन्हें अन्न जल प्रदान करता है उससे प्रसन्न होकर पितर खुशी-खुशी आशीर्वाद देकर अपने लोक लौट जाते हैं। पितृ पक्ष पन्द्रह दिन की समयावधि होती है जिसमें हिन्दु जन अपने पूर्वजों को भोजन अर्पण कर उन्हें श्रधांजलि देते हैं।
ब्रह्मपुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है।पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।
मान्यताओं के अनुसार अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। 


श्राद्ध में बढ़ जाता हैं कौवा का महत्व


ऐसा मान्यता है कि कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है। 
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए।ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है।पितरों की शांति के लिए हर वर्ष के पितृपक्ष मे मान्यता है कि इस समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें। 
श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।
सरल शब्दों में समझा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है।अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है। इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है। इस विषय में कुछ विशेष मान्यता भी है जो निम्न हैं।
पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है।जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई जो यानि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है।जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है,उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है। वहीं यह भी मान्यता है,की
पितरों के असंतुष्ट हो जाने से सात जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है और देवताओं के क्रोधित हो जाने से तीन जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है। देवता और पितर जिससे रुष्ट हो जाते हैं उसके यज्ञ और पूर्त दोनों धर्मो का नाश हो जाता है। पितृगण कहते है कि क्या हमारे वंश में कोई ऐसा भाग्यशाली जन्म लेगा, जो शीतल जल वाली नदी के जल से हमें जलांजलि देकर तथा दुग्ध, मूल, फल, खाघान सहित तिल मिश्रित जल से श्राद्ध कर्म करेगा।
‌श्राद्ध की प्रक्रिया पूरी करने के समय को शास्त्रों में कुतकाल कहा गया है। इसकी अवधि प्रायः दिन से अपरान्ह 5 बजे तक की होती है। श्राध्द कर्म करने के लिए सर्वप्रथम अपने घर के द्वार को धोकर और लीपकर शुरु करना चाहिये। फिर ब्राह्मण को आमंत्रित कर उसकेअंदर अपने पुरखों का भाव स्मरण कर उसको सम्मानपूर्वक भोजन कराया जाता है ।

रिपोर्ट पिंटू सिंह

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