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तब बैलगाड़ी से मेले में निकलता था कारवां....


 रतसर,बलिया । भृगु मुनि की पावन तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर प्रति वर्ष लगने वाला प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। ददरी मेले का आयोजन पूर्णिमा स्नान के बाद से ही शुरू हो जाता है। ददरी मेले का जलवा उस समय कुछ ज्यादा ही था जब आवागमन के साधनों की कमी थी तथा सड़कें भी कम थी। उस समय लोग वाग पैदल या बैलगाड़ी से अपने बाल बच्चों के साथ गठरी, मोटरी, आटा, सत्तु आदि सामानों के साथ अक्षय नवमी के दिन से ही घर से चल देते थे। उस समय जनपद के दूर दराज इलाकों में आने वाली बैलगाड़ियों व लोगों का काफिला मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता था। स्नान करने वालों का हुजूम भी एक लघु मेले का रूप धारण कर लेता था। बड़े बुजुर्गों के संस्मरण आज भी लोगों के जेहन में रोमांच भर देते है।



अध्यात्मवेत्ता आचार्य भरत पाण्डेय का कहना है कि उस समय और अब में बहुत फर्क आ गया है। उस समय लोगों के बीच आपसी प्रेम, सौहार्द व भाईचारा था जो स्नान के समय भी दिखता था,अब वैसा नही दिखता। महिलाए पैदल ही भृगु मुनि के दर्शन आदि लोकगीतों को गाती हुई स्नान के लिए जाती थी। उस समय जनपद के चारो तरफ से बैलगाड़ियों का काफिला शहर से दूर हनुमानगंज, फेफना, शंकरपुर आदि चट्टियों पर रुकता था। स्नान करने वालों का यह हुजूम लघु मेले का रुप ले लेता था तथा कई दिन तक रुकता था। मेले से वापसी के समय भी लोग इन चट्टियों पर रुकते थे।



राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित बुजुर्ग शिक्षक विद श्रीकान्त पाण्डेय का कहना है कि उस समय मेले में जनपद के प्रत्येक क्षेत्र के मशहुर हस्तशिल्प सहित अन्य दुकानें भी लगती थी जिसे लोग काफी पसंद करते थे। उस समय सहतवार कस्बे से पालकी, बैरिया से चमौधे तक जूतों की दुकान, तुर्तीपार से पीतल के वर्तन, हनुमानगंज का सिंहोरा, मनियर की बिंदी,रतसर की पापड़ी,रसड़ा से मिट्टी के वर्तन एवं खिलौने की दुकाने, करम्मर से हथकरघे द्वारा तैयार कपड़े आदि की दुकान लगती थी। इन दुकानों की साज सज्जा ऐसे होती थी कि जो जनपद के औद्योगिक विकास का बोध कराती थी। अन्य प्रांतों से भी बड़ी संख्या में दुकाने आती थी।




जनऊ बाबा साहित्यिक संस्था निर्झर के संरक्षक धनेश कुमार पाण्डेय का कहना है कि मनोरंजन के जो साधन उस समय प्रयुक्त होते थे वे सभी इस मेले में मिलते थे। इसके अतिरिक्त नौटंकी, ड्रामा, दंगल, सर्कस, गायन, वादन की टीमें भी मेले को शबाब पर पहुंचाती थी।



पं० कृपाशंकर तिवारी का कहना है कि कभी संतों का प्रवचन मेले की प्रमुख पहचान थी। 2000 में संतों के प्रयास से धार्मिक सत्संग, प्रवचन और गंगा आरती शुरु हुई। समय के साथ साथ गंगा सरयू का संगम स्थल परिवर्तित होता रहा और मेला भी शहर की तरफ बढता गया, साथ ही इसका भौतिक स्वरुप भी बदल गया। अब भौतिक चकाचौंध में मेला पूरी तरह रंगा रहता है तथा मेले में आयी सामग्री और खरीद विक्री भी वक्त के मुताबिक होने लगी है।



रिपोर्ट : धनेश पांडेय

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