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बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में वन्यजीवों का है घोर अभाव



बलिया : यदि बलिया जनपद सहित पूरे पूर्वांचल के जनपदों में वन  एवं वन्यजीवों की स्थिति को देखा जाय तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । कारण कि इन क्षेत्रों प्राकृतिक वन नहीं के बराबर हैं। प्राकृतिक वनस्पतियों के नामपर मात्र झाड़ियाँ एवं मूँज,नरकल आदि ही देखने को मिलते हैं। वो भी अब समाप्ति के कगार पर हैं। मानव द्वारा रोपित वृक्ष भी मात्र दो से तीन प्रतिशत तक ही हैं, जबकि 33 प्रतिशत भूमि पर वनों का विस्तार होना चाहिए। जहाँ तक बलिया जनपद का प्रश्न है तो यहाँ कि स्थिति और भयावह है। इस जनपद के गंगा एवं घाघरा नदियों के दियारे क्षेत्र में एवं जिले के पश्चिमी क्षेत्र में अर्थात् बाँगर क्षेत्र में कुछ प्राकृतिक वनस्पतियां मिल जाया करती थीं, जिनमें अनेक तरह के छोटे- बड़े जीव जन्तु दिख जाया करते थे। जिनमें हिरन, उदबिलाँव, जंगली सुअर, खरगोश, जंगली बिल्ली, नीलगाय, शाही, सियार, खरहा, चूहे, अनेक तरह के सर्प, अनेक तरह की पक्षियाँ कुलाँचे भरते एवं कलरव करते दिखाई देते रहते थे। इन जीव जंतुओं का इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में अहम् भूमिका रहती थी। किन्तु दुर्भाग्यवश ये प्राकृतिक झाड़ियाँ भी समाप्त हो गयी और साथ ही साथ ये जीव- जंतु भी समाप्त हो गये। मानव द्वारा लगाए गये बाग- बगीचे भी समाप्त कर दिए गये। वन्यशून्य इस जनपद में पारिस्थितिकी संकट चरम पर बढ़ गया है ,जिसका खामियाजा भी हमें भूगतना पड़ रहा है।
       प्रश्न यह है कि वन्यजीवों का संरक्षण कैसे किया जाय। यदि हम अपने देश के परिप्रेक्ष्य में देखें  तो भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है, जिसमें पूरी प्रकृति के संरक्षण की विचारधारा प्यस्तुत है। खासतौर से वन एवं वन्यजीव के संरक्षण की बात देखें तो हमारी संस्कृति में वृक्षों की पूजा का विधान बनाया गया है,ताकि उनका संरक्षण किया जा सके। हिंसक एवं अहिंसक जीवों की सुरक्षा हेतु उन्हें देवी- देवताओं का वाहन बना दिया गया, ताकि उनको कोई मार न सके। आज हमें पुनः इन अवधारणाओं को जानने की आवश्यकता है एवं जनजागरूकता फैलाने की आवश्यकता है ,ताकि वनवृक्षों एवं वन्यजीवों को बचाकर पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की सुरक्षा की जा सके।




रिपोर्ट : धीरज सिंह

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